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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

आ यस्ते॑ अग्न इध॒ते अनी॑कं॒ वसि॑ष्ठ॒ शुक्र॒ दीदि॑वः॒ पाव॑क। उ॒तो न॑ ए॒भिः स्त॒वथै॑रि॒ह स्याः॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yas te agna idhate anīkaṁ vasiṣṭha śukra dīdivaḥ pāvaka | uto na ebhiḥ stavathair iha syāḥ ||

पद पाठ

आ। यः। ते॒। अ॒ग्ने॒। इ॒ध॒ते। अनी॑कम्। वसि॑ष्ठ। शुक्र॑। दीदि॑ऽवः। पाव॑क। उ॒तो इति॑। नः॒। ए॒भिः। स्त॒वथैः॑। इ॒ह। स्याः॒ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:1» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को किससे सेना तेजस्विनी करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान (वसिष्ठ) अतिशय कर वसने और (शुक्र) शीघ्रता करनेवाले पराक्रमी (दीदिवः) विजय की कामना करते हुए (पावक) पवित्र राजन् ! जिस (ते) आपकी (अनीकम्) सेना को (यः) जो अग्नि (आ, इधते) प्रदीप्त प्रकाशित कराता है, उस अग्नि की (एभिः) इन (स्तवथैः) स्तुतियों से (इह) इस राज्य में (नः) हमारे रक्षक (स्याः) हूजिये (उतो) और भी हम लोग उस अग्नि के बल से ही आपके रक्षक होवें ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजपुरुष अग्निविद्या से आग्नेयास्त्रादि को बना के अपनी सेना को अच्छे प्रकार प्रकाशित करके न्याय से प्रजा के पालक हों, वे दीर्घ समय तक राज्य को पाके महान् ऐश्वर्यवाले होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः केन तेजस्विनी सेना कार्येत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने वह्निरिव वर्त्तमान वसिष्ठ शुक्र दीदिवः पावक राजन् यस्य ते तवाऽनीकं योऽग्निरा इधते तस्यैभिः स्तवथैरिह नो रक्षकः स्या उतो अपि वयं तदग्निबलेनैव ते रक्षकाः स्याम ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (यः) (ते) तव (अग्ने) पावक इव (इधते) प्रदीपयति (अनीकम्) सैन्यम् (वसिष्ठ) अतिशयेन वसो (शुक्र) आशुकारिन् वीर्यवन् (दीदिवः) विजयं कामयमान (पावक) पवित्र (उतो) (नः) अस्माकम् (एभिः) (स्तवथैः) (इह) अस्मिन् राज्ये (स्याः) भवेः ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजपुरुषा अग्निविद्ययाऽऽग्नेयास्त्रादीनि निर्माय स्वसैन्यं सुप्रकाशितं कृत्वा न्यायेन प्रजापालकास्स्युस्ते दीर्घसमयं राज्यं महैश्वर्य्या जायन्ते ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजपुरुष अग्निविद्येने आग्नेयास्त्र इत्यादी निर्माण करून आपल्या सेनेला चांगल्या प्रकारे प्रशिक्षित करून प्रसिद्धीला आणतात व न्यायाने प्रजेचे पालन करतात ते दीर्घकाळ राज्य करून महान ऐश्वर्यवान होतात. ॥ ८ ॥